vishwa hindi parishad

+(011) 35990037 , +(91) 8586016348

+(011) 35990037 , +(91) 8586016348

हिन्दी के विपक्ष की घृणा दुर्भाग्यपूर्ण – 10.03.2025 (वीर अर्जुन)

हाल ही में, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने केंद्र सरकार के कार्यालयों से हिन्दी को हटाने की एक विवादास्पद मांग उठाई है। उनका यह कहना है कि भारतीय जनता पार्टी के फैसलों के कारण ऐसा हुआ है। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि हिन्दी को थोपने के बजाय तमिल को आधिकारिक भाषा बनाया जाए। उनका आरोप है कि सांकेतिक कदमों के बजाय तमिलनाडु के विकास को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। यह दृष्टिकोण वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है।

वास्तव में, ‘हिन्दी थोपना’ अब विपक्ष के लिए एक मुहावरे जैसा बन चुका है। लेकिन सच तो यह है कि हिन्दी की जड़ें सरकारी आदेशों में नहीं, बल्कि यह आम जनता की आकांक्षाओं और जरूरतों की भाषा के रूप में खुद को स्थापित कर चुकी है। शासकीय स्तर पर इसे हटाने की कोशिशें भले ही की जा सकती हैं, लेकिन हिन्दी का दैनिक उपयोग रुकने वाला नहीं है।

इसका प्रमाण आंकड़े भी देते हैं। तमिलनाडु में पिछले एक दशक में हिन्दी सीखने वालों की संख्या दोगुनी से भी अधिक हो चुकी है। दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के अनुसार, 2009 में जहां हिन्दी सीखने वालों की संख्या 2.18 लाख थी, वह 2019 में बढ़कर 5.90 लाख हो गई। यह साबित करता है कि हिन्दी को किसी विशेष प्रोत्साहन की जरूरत नहीं है, बल्कि यह स्वाभाविक रूप से अपनी जगह बना रही है।

यह तथ्य इस बात का प्रतीक है कि हिन्दी विरोधी राजनीतिक दलों की यह नीति संकीर्ण मानसिकता का परिणाम है, न कि आम जनता का कोई विरोध। दरअसल, हिन्दी के विरोध के माध्यम से वे अपनी असफलताओं को छिपाने का प्रयास करते हैं, ठीक वैसे जैसे कुछ दल अपनी चुनावी हार का दोष ईवीएम पर मढ़ने का प्रयास करते हैं।

हिन्दी भाषा के विरोधियों को अब यह समझना होगा कि हिन्दी न केवल हमारी राष्ट्रीय एकता और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है, बल्कि यह हमारी अस्मिता, संस्कृति और परंपराओं की पहचान भी बन चुकी है। अपनी सरलता, सहजता और प्रभावीता के कारण हिन्दी आज एक वैज्ञानिक भाषा के रूप में अपनी नई पहचान बना रही है।

हिन्दी ने हमारे लोकतांत्रिक तंत्र को भी एकसूत्र में बांधने का महान कार्य किया है। यह हमारी क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों के साथ-साथ कई वैश्विक भाषाओं के बीच एक पुल का काम कर रही है, और इस प्रकार पूरी दुनिया में अपनी विशिष्ट पहचान बना चुकी है।

इतिहास भी गवाही देता है कि स्वतंत्रता संग्राम के समय हिन्दी ने एक संवाद भाषा के रूप में समाज को जागरूक किया था। ‘स्वराज’ और ‘स्वभाषा’ के आंदोलन एक साथ चले, और इसने भारतीय समाज को एकजुट करने में अहम भूमिका निभाई।

इसलिए, हिन्दी का विरोध केवल राजनीतिक रणनीति हो सकता है, लेकिन इसकी व्यापक स्वीकार्यता और विकास के रास्ते को कोई रोक नहीं सकता।

हालांकि, हिन्दी के प्रति सम्मान और इसके प्रसार को बढ़ावा कुछ लोगों को रास नहीं आता है। उन्हें लगता है कि हम आधुनिकता केवल अंग्रेज़ियत से हासिल कर सकते हैं। लेकिन, हमें यह समझना होगा कि किसी भी समाज में मौलिक और सृजनात्‍मक अभिव्‍यक्‍ति को केवल और केवल अपनी भाषा के माध्यम से ही विकसित किया जा सकता है। यह एक शाश्वत सत्य है कि हमारी अपनी मातृभाषा में भी हमारी उन्नति का मूल छिपा हुआ है। 

हमारी भाषाएँ, हमारी बोलियाँ, हमारी अमूल्य विरासत हैं। यदि हमें आगे बढ़ना है, तो इसे हमें साथ लेकर चलना ही होगा। इसी संकल्प के साथ बीते एक दशक में भारत सरकार ने हिन्दी समेत सभी भारतीय भाषाओं के वैश्विक प्रचार-प्रसार के लिए आधुनिक तकनीक के माध्यम से सार्वजनिक, प्रशासन, शिक्षा और वैज्ञानिक प्रयोग के अनुकूल उपयोगी बनाने का प्रयास किया है। 

यदि मुद्दा हिन्दी की वैश्विकता का हो, तो आज संपूर्ण विश्व में 6500 से भी अधिक भाषाएं बोली जाती है, जिसमें मैंडरिन (चीनी) के बाद हिन्दी दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। लेकिन हिन्दी शोध संस्थान, देहरादून के महानिदेशक डॉक्टर जयंती प्रसाद नौटियाल की “शोध  अध्ययन – 2021” के अनुसार, आज हिन्दी दुनिया की सबसे बड़ी भाषा है। उनका यह शोध केंद्रीय हिन्दी निदेशालय, भारत सरकार,आगरा  द्वारा नियुक्त भाषा विशेषज्ञों द्वारा पूर्णतः प्रमाणित है।

आज हमने वर्ष 2047 तक एक वैश्विक महाशक्ति के रूप में खुद को स्थापित करने के लिए ‘पंच प्रण’ का संकल्प लिया है और हिन्दी हमारे पारंपरिक ज्ञान, ऐतिहासिक मूल्यों और आधुनिक प्रगति के बीच, एक महान सेतु की भूमिका निभा रही है।

लेकिन, आज जिस तीव्रता के साथ देश के हर कोने में अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालयों की संख्या बढ़ रही है। उससे न सिर्फ हिन्दी बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं के लिए अस्तित्व का खतरा मंडरा रहा है। यह एक तथ्य है, जिसे कोई भी हिन्दी भाषा के विरोधी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते हैं। 

अतः हमें आज लॉर्ड मैकाले द्वारा भारत पर थोपी गई उस शिक्षा व्यवस्था को एकजुट होकर ध्वस्त करने की आवश्यकता है, जो सामाजिक और सांस्कृतिक विरासतों को सदियों से धूल-धूसरित कर रहे हैं। 

इसके लिए हमें एकजुट होकर हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के उत्थान और विकास के लिए एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन को अंज़ाम देते हुए, अंग्रेज़ियत से मुक्त पाने की कोशिश करने होगी।

क्योंकि, एक विदेशी भाषा को अंगीकार कर हम चाहें जितनी भी आर्थिक प्रगति कर लें, लेकिन सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता हमें अपनी भाषाओं से ही हासिल हो सकती है।

हिन्दी के विरोधियों को यह समझना होगा कि हिन्दी किसी भारतीय भाषा की प्रतिस्पर्धी नहीं है और न ही इसे थोपने का प्रयास किया जा रहा है। यदि हिन्दी भारत में व्यापक रूप से स्वीकार की गई, तो यह सभी भारतीय भाषाओं के विकास का मार्ग प्रशस्त करेगी।

हमें यह भी जानना होगा कि हिन्दी और मातृभाषा के सम्मान के बिना हमारा समाज अधूरा रहेगा। इसलिए हिन्दी का अनावश्यक विरोध त्यागना ही उचित है।

महात्मा गांधी ने हिन्दी के महत्व को रेखांकित करते हुए 1918 में कहा था, “हिंदुस्तान को यदि एक राष्ट्र बनना है, तो राष्ट्रभाषा केवल हिन्दी हो सकती है। हिन्दी को जो स्थान प्राप्त है, वह किसी अन्य भाषा को नहीं मिल सकता। हर प्रांत में प्रांतीय भाषा का सम्मान, पूरे देश के लिए हिन्दी और अंतरराष्ट्रीय उपयोग के लिए अंग्रेजी का प्रयोग होना चाहिए।”

आगामी 10 जनवरी, जब हम ‘विश्व हिन्दी दिवस’ मनाने जा रहे हैं, यह समय है हिन्दी और गैर-हिन्दी भाषी राज्यों के विवाद से ऊपर उठकर हिन्दी के वैश्विक महत्व को स्वीकारने और इसे अपने जीवन में आत्मसात करने का। यही हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। यही सभी भारतीय भाषाओं के लिए भी श्रेष्ठतर है।