दशकों तक भारत के जनजातीय समुदाय राष्ट्रीय विमर्श में हाशिए पर रहे — उन्हें देश की कहानी में भागीदारों की बजाय केवल दूर-दराज़ के जंगलों में रहने वाले लोगों के रूप में देखा गया। पेड़ों की नीरवता और ढोल की थाप के साथ उनके पूर्वजों ने ज्ञान, साहस और प्रकृति से जुड़कर जीवन जिया। फिर भी, भारत की राष्ट्रीय धारा में उनकी उपस्थिति या तो भुला दी गई या जानबूझकर अनदेखी की गई। लेकिन पिछले 11 वर्षों से एक शांत बदलाव हो रहा है — जिसने न केवल जनजातीय धरोहर को पुनर्जीवित किया है, बल्कि उसमें गर्व और उद्देश्य भी जोड़ा है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में, जो कभी हाशिए पर था, उसे अब भारत की सांस्कृतिक और विकास यात्रा के केंद्र में लाया गया है। जनजातीय संस्कृति, कला और ज्ञान को नया सम्मान मिला है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अब सैकड़ों जनजातीय समुदायों के हजारों परिवार, जो वर्षों से हाशिये पर थे, पहली बार खुद को देखा, सुना और सम्मानित महसूस कर रहे हैं।
यह बदलाव संयोग नहीं है — यह जनजातीय विरासत को राष्ट्रीय चेतना में एकीकृत करने के लिए निरंतर और संवेदनशील प्रयास का परिणाम है। एक महत्वपूर्ण क्षण 2021 में आया, जब प्रतिष्ठित जनजातीय स्वतंत्रता सेनानी भगवान बिरसा मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस घोषित किया गया। देश भर में जनजातीय बुजुर्गों की आँखों में आंसू छलक आए, जब उन्होंने देखा कि राष्ट्र ने आखिरकार उस नायक को सम्मान दिया, जो उनके दिलों में हमेशा से हीरो था, लेकिन इतिहास की किताबों में गायब था।
देश भर में 11 जनजातीय स्वतंत्रता सेनानी संग्रहालय विकसित किए जा रहे हैं, जो उन वीर योद्धाओं की भूली-बिसरी कहानियों को सामने ला रहे हैं, जिन्होंने तिरंगे के लिए खून बहाया, लेकिन पाठ्यपुस्तकों में जगह नहीं पाई। इनमें मानगढ़ धाम की कहानी है, जहाँ 1913 में गोविंद गुरु जी के साथ खड़े सैकड़ों भील जनजातियों को अंग्रेजों ने मार डाला। दशकों तक यह स्थल अधिकांश भारतीयों के लिए अज्ञात रहा। लेकिन जब पीएम मोदी ने इसे राष्ट्रीय महत्व का स्मारक घोषित किया, तो उन्होंने न केवल भीलों को एक स्मारक दिया, बल्कि राष्ट्र को एक संदेश भी दिया: हर कहानी मायने रखती है। हर त्रासदी मायने रखती है। हर भारतीय मायने रखता है।
राष्ट्र अब हमारे जनजातीय स्वतंत्रता सेनानियों—भगवान बिरसा मुंडा, गोविंद गुरु जी, रानी गाइदिन्ल्यू, अल्लूरी सीताराम राजू, तिरोत सिंह सिएम जैसे अनगिनत हस्तियों के स्मरण में सिर झुकाता है। यह केवल प्रतीकात्मक इशारा नहीं, बल्कि सांस्कृतिक सुधार है।
प्रतिनिधित्व की बात करें तो श्रीमति द्रौपदी मुर्मू जी का उल्लेख जरूरी है—एक जनजातीय महिला, जो देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद—राष्ट्रपति—तक पहुँचीं। वे भारतीय सशस्त्र बलों की सर्वोच्च कमांडर हैं, और उनकी शांत शक्ति करोड़ों सपनों और आकांक्षाओं की वह सामूहिक जीत है, जो अतीत की जड़ों को वर्तमान की उम्मीदों से जोड़ती है।
मान्यता केवल नेतृत्व तक सीमित नहीं रही। जनजातीय रचनात्मकता, कला, संस्कृति और ज्ञान अब भारत की गौरवशाली विरासत के रूप में देखे जा रहे हैं, न कि पुरानी लोककथाओं के रूप में। पीएम मोदी के अंतर्गत, पद्म पुरस्कार अभिजात्य वर्ग के सम्मान से बदलकर सच्चे जन सम्मान बन गए हैं। भील चित्रकार, गोंड लकड़ी के कारीगर, बैगा शिल्पकार और पर्यावरण की रक्षा में समर्पित जनजातीय परंपराओं के संरक्षक — ये संस्कृति के मौन प्रहरी अब राष्ट्रीय चेतना का अभिन्न अंग बन चुके हैं। जो कभी “पिछड़ा” माना जाता था, वह अब “सुंदर” है, और जो “असभ्य” था, उसे अब पवित्र के रूप में मान्यता मिल रही है।
आर्थिक सम्मान ने सांस्कृतिक गर्व का अनुसरण किया है। सदियों तक, जनजातीय समुदायों का जंगलों के साथ संबंध स्वाभाविक और सम्मानजनक था। लेकिन ब्रिटिश युग के कानूनों ने उन्हें अपने ही घर में घुसपैठियों की तरह माना, अपराधियों की तरह बिना पहचान के—चाहे बाँस को पेड़ के रूप में वर्गीकृत करना और कटाई को दंडनीय बनाना हो या खानाबदोश जनजातियों का अपमान।
बाँस को पेड़ की श्रेणी से हटाने के निर्णय ने इस सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण पौधे को प्रतिबंधात्मक कानूनों से मुक्त किया। पूर्वोत्तर और अन्य वन क्षेत्रों में, इस नीति ने स्थानीय समुदायों को बाँस-आधारित उत्पादों को संसाधित और बेचने की अनुमति दी—जो जीवन शैली को आजीविका का स्रोत बना रहा है।
इसी तरह, लघु वन उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) व्यवस्था का विस्तार करने से सैकड़ों जनजातीय परिवारों को वित्तीय स्थिरता मिली है। जनजातीय शिल्प और उत्पादों को दिए गए भौगोलिक संकेतक (GI) टैग की बढ़ती संख्या ने विरासत को संरक्षित और मुद्रीकृत करने का एक मजबूत ढांचा तैयार किया है।
परंपरा और प्रगति के चौराहे पर एकलव्य मॉडल आवासीय स्कूल खड़े हैं, जो जनजातीय छात्रों को आधुनिक शिक्षा प्रदान करते हैं, साथ ही उनकी सांस्कृतिक जड़ों का सम्मान करते हैं। NEP 2020 के तहत मातृभाषा में शिक्षा को प्राथमिकता देने के साथ, ये स्कूल एक व्यापक दृष्टिकोण का हिस्सा बन गए हैं, जहाँ विकास और विरासत प्रतिस्पर्धी नहीं, बल्कि पूरक रास्ते हैं। दूरस्थ गाँवों के बच्चे अब इंजीनियर और डॉक्टर बनने का सपना देख रहे हैं — अपनी भाषा, परंपराओं और पहचान की जड़ों को संजोए रखते हुए।
इन प्रयासों का सांस्कृतिक प्रभाव भी गहरा रहा है। शहरों और कस्बों में जनजातीय जीवन शैली के प्रति बढ़ती रुचि है। लोग जनजातीय होमस्टे में रुकना, वन समुदायों की खोज करना और स्वदेशी प्रथाओं से सीखना पसंद कर रहे हैं। जनजातीय संगीत, भोजन और उत्सव मुख्यधारा का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। भारतीयों की एक नई पीढ़ी देश के पहले पारिस्थितिक ज्ञान-रक्षकों को फिर से खोज रही है—और वह भी प्रशंसा के साथ, न कि तिरस्कार के साथ।
शायद सबसे परिवर्तनकारी बदलाव है मानसिकता में परिवर्तन। जहाँ जनजातीय पहचान को रूढ़ियों से देखा जाता था, वहाँ अब उसे जिज्ञासा और गर्व के साथ स्वागत किया जाता है। जहाँ जनजातीय प्रथाओं को अवैज्ञानिक माना जाता था, वहाँ अब उनकी स्थिरता को मान्यता मिल रही है। और जहाँ जनजातीय आवाजें दबाई जाती थीं, वहाँ अब उन्हें बढ़ावा दिया जा रहा है। आज, जब कोई जनजातीय समुदाय का बुजुर्ग किसी भूले-बिसरे नायक के नाम पर रखे गए रेलवे स्टेशन से गुजरता है, या जब किसी दूरस्थ गाँव का युवा कारीगर पद्म श्री प्राप्त करता है, तो एक शांत न्याय की भावना जड़ें जमाती है।
यह परिवर्तन उस नेतृत्व के बिना संभव नहीं होता, जिसने जनजातीय भारत को सुनने का विकल्प चुना—सचमुच सुना। पीएम मोदी ने अक्सर कहा है कि “जनजातीय समुदाय न केवल भारत के जंगलों के संरक्षक हैं, बल्कि भारत की आत्मा के भी।” यह दृष्टिकोण, जो निर्भरता नहीं बल्कि सम्मान, दया नहीं बल्कि गर्व पर आधारित है, अब शासन की सोच और नीति की दिशा को निर्धारित कर रहा है। पीएम मोदी के नेतृत्व में, भारत अपनी जनजातीय विरासत को केवल याद नहीं कर रहा—वह आखिरकार इसे जी रहा है।