डॉ. विपिन कुमार (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
दशकों तक भारत का ग्रामीण समाज केवल आंकड़ों और योजनाओं की भाषा में देखा गया — मानो वे विकास की गाड़ी के पीछे छूटे हुए डिब्बे हों, जिन्हें कभी ज़रूरत पड़ने पर जोड़ दिया जाए। मिट्टी से जुड़ी इस आबादी के पास अनुभव, श्रम और परंपरा की अमूल्य पूँजी थी, फिर भी वह राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र से दूर रही। लेकिन पिछले 11 वर्षों में एक सधी हुई, निरंतर और गहरी प्रक्रिया के तहत यह स्थिति बदल रही है — ग्रामीण भारत अब केवल ‘विकास का लक्ष्य’ नहीं रहा, वह अब ‘विकास का आधार’ बन गया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जो कभी उपेक्षित था, वह अब नीति-निर्माण के केंद्र में है। गांवों की सादगी, वहाँ की परंपराएं और श्रमशीलता अब राष्ट्रीय गर्व का विषय बन रही हैं। और सबसे अहम बात यह है कि आज करोड़ों ग्रामीण नागरिक पहली बार यह अनुभव कर रहे हैं कि उनकी आवाज़ सुनी जा रही है, उनकी ज़रूरतें समझी जा रही हैं और उनके जीवन को सम्मान मिल रहा है।
यह बदलाव आकस्मिक नहीं, बल्कि एक सोच-विचार कर किए गए प्रयास का परिणाम है। एक महत्वपूर्ण पड़ाव तब आया जब ‘स्वच्छ भारत मिशन’ जैसी योजनाएं केवल प्रतीक नहीं रहीं, बल्कि वे ग्रामीण जीवन की गुणवत्ता में ठोस सुधार लेकर आईं। करोड़ों शौचालयों के निर्माण से ग्रामीण महिलाओं को जो गरिमा मिली, वह शब्दों से परे है। यह सामाजिक न्याय और स्वास्थ्य का समागम था — जो ग्रामीण भारत को भीतर से सशक्त बना रहा है।
‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ के अंतर्गत बने पक्के मकानों ने उन परिवारों को स्थिरता दी, जिनके लिए छत सिर्फ सपना थी। अब वे घर केवल ईंट-पत्थर नहीं, आत्म-सम्मान के स्मारक हैं। ‘उज्ज्वला योजना’ ने जब रसोई से धुआं हटाया, तो उस प्रकाश में एक नए भारत की झलक दिखी — ऐसा भारत, जहाँ महिलाओं की सेहत, समय और गरिमा को बराबर की प्राथमिकता मिली।
लेकिन यह परिवर्तन केवल योजनाओं तक सीमित नहीं रहा — यह एक मानसिक क्रांति का हिस्सा है। ‘डिजिटल इंडिया’ और ‘जन धन योजना’ जैसे अभियानों ने उस ग्रामीण महिला या पुरुष को भी बैंकिंग और तकनीक की मुख्यधारा में ला खड़ा किया, जो कभी खाता खोलने के नाम पर चुप्पी साध लेता था। आज गाँवों में किसान ड्रोन से खेत का निरीक्षण कर रहा है, QR कोड से भुगतान कर रहा है और मोबाइल पर मंडी भाव देख रहा है।
यह केवल प्रगति नहीं, यह ग्रामीण आत्मविश्वास का पुनर्जागरण है। आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना जब ‘वोकल फॉर लोकल’ जैसे अभियानों से जुड़ी, तो ग्रामीण कारीगर, बुनकर और किसान देश की अर्थव्यवस्था के नायक बन गए। मिट्टी के दीयों से लेकर मधु उत्पादन तक — ग्रामीण उत्पादों को वह पहचान और बाजार मिला, जो दशकों से उनसे दूर था।
ग्रामीण भारत का नवजागरण शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी स्पष्ट दिखता है। पीएम श्री स्कूलों, आयुष्मान भारत योजना और पोषण अभियानों ने यह सुनिश्चित किया कि गाँवों के बच्चों को अब संसाधनों की नहीं, सपनों की कमी न हो। जहां पहले प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खाली पड़े रहते थे, अब वहाँ टेलीमेडिसिन और दवाइयों की उपलब्धता ने ग्रामीण जीवन को नए आत्मबल से भर दिया है।
शायद सबसे बड़ा परिवर्तन यह है कि अब ग्रामीण भारत को ‘पिछड़ा’ कहने की आदत छूट रही है। अब वह ‘संवेदनशील’, ‘सक्षम’ और ‘सशक्त’ कहा जा रहा है। जहाँ कभी एक किसान आत्महत्या की खबर बनता था, अब वह जैविक खेती, स्टार्टअप और नवाचार की प्रेरणा बन रहा है। अब कोई ग्रामीण युवा जब मुद्रा लोन लेकर उद्यमी बनता है या कोई महिला स्वयं सहायता समूह की अगुवा बनकर मंच साझा करती है, तो एक शांत न्याय की अनुभूति होती है।
यह परिवर्तन एक ऐसे नेतृत्व के कारण संभव हुआ, जिसने ग्रामीण भारत को केवल ‘संसाधन’ नहीं, ‘संभावना’ के रूप में देखा। प्रधानमंत्री मोदी ने बार-बार कहा है कि “गाँवों का विकास ही भारत का सच्चा विकास है।” यह दृष्टिकोण अब नीति का आधार बन गया है — जहाँ गाँव सिर्फ शहर का पिछलग्गू नहीं, बल्कि अपने अधिकारों और स्वाभिमान के साथ खड़ा भविष्य है।
आज भारत अपनी ग्रामीण जड़ों को केवल स्मरण नहीं कर रहा — वह उन्हें अपनाकर भविष्य गढ़ रहा है। यह दशक, मोदी युग में ग्रामीण नवजागरण का दशक बन चुका है।